बेमौसम बरसात के दुख में रेणु की याद
एक एकड़ धरती में धान उपजाना, एक उपान्यास लिखने जैसा: रेणु
गिरीन्द्र नाथ झा, युवा कथाकार
मार्च के आखिरी दिनों में हुई बे-मौसम बारिश ने खेतों को तबाह कर दिया है। आंखों के सामने गेहूं की फसल को तबाह होते देखा, जवान मक्का को जमीन पर लुढ़कते देखा। आम, लीची के नन्हे फलों को भी धरती पर बिखरते देखा। किसानी करते हुए ही यह जान सका कि मौसम की मार सबसे खतरनाक होती है, क्योंकि यह मार किसानों के सपने उड़ा ले जाती है। किसानी का ‘दुख-राग’ अलापते हुए मुझे अपने प्रिय कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु याद आ रहे हैं। वह किसानी करने वाले लेखक थे। रेणु खेती के अंदाज में लेखन करते थे। एक दफे उन्होंने कहा था, एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है। लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में। साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु भले 38 वर्ष पहले हमसे दूर चले गए, लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वह आज भी हमारे लिए जीवंत हैं। रेणु पैदाइशी किसान थे, इसलिए वह किसानों के दर्द को शब्दों में उकेर देते थे। आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान. फणीश्वर नाथ रेणु ने जब यह लिखा था, तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित थे। लेकिन उस वक्त मौसम इस तरह करवटें नहीं लिया करता था। मौसम की मार की वजह से किसानों का मोहभंग नहीं हुआ था।
बे-मौसम बारिश में अपने खेतों को उजड़ते देखने के बाद यह सब लिखते हुए मैं भावुक हो चला हूं, इसके बावजूद किसानी कर रहे लोगों का भरम नहीं तोड़ना चाहता। हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में है। बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे, हममें जीवट है। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेगा, यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मकई के खेतों में पहाड़ी चिड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए हंडिया को काले रंग से पोतकर फिर से खड़ा करना है। मैं अंखफोड़वा कीड़े की तरह ‘भन-भन’ करता हुआ मक्के के खेतों में उड़ना चाहूंगा, ताकि काले बादल के तेवर को समझ सकूं कि कब बरखा होगी और कब खूब धूप उगेगी। इस कीड़े पर रेणु ने लिखा है- एक कीड़ा होता है अंखफोड़वा, जो केवल उड़ते वक्त बोलता है, भन-भन-भन। क्या कारण है कि वह बैठकर नहीं बोल पाता? सूक्ष्म पर्यवेक्षण से ज्ञात होगा कि यह आवाज उड़ने में चलते हुए उसके पंखों की है। सूक्ष्मता से देखना-पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। रेणु कम शब्दों में अपनी बात रखते थे। बे-मौसम बारिश में गेहूं-मक्का को गंवाने के बावजूद रेणु के अंचल के किसान टूटे नहीं हैं, क्योंकि उनकी नजर अब अपने उन खेतों पर है, जहां फसलें अब भी लहलहा रही हैं। किसान दुख में भी सुख के अंश खोज लेते हैं।(हिन्दी हिन्दुस्तान से साभार)
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