Thursday 20 February 2014

बिसर गईल फाग, भूला गईल चैता

अरविंद राय
घोसी (मऊ): वसंत पंचमी (चार फरवरी) का पर्व बीते एक पखवारा होने को है। तीन दिन पूर्व शनिवार को फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा थी यानी फाल्गुन मास गत तीन दिनों से चल रहा है। यह जानकारी अब चौपाल से उठते चौताल और फाग के बीच ढोलक के सुर नहीं देते हैं। यह सूचना अब कैलेंडरों मिलता है। अब तो ग्रामीण क्षेत्र हो या नगरीय सर्वत्र बस यही प्रतीत होता है कि 'बिसर गईल फाग भूला गईल चैता। '
भारतीय शास्त्रीय एवं पारंपरिक गीत प्रत्येक मास, ऋतु, वेला एवं आयोजन के लिए पृथक-पृथक हैं। इनकी धुन अलग है तो भाव बेहद गूढ़। वसंत पंचमी के दिन होलिका स्थापना की परंपरा के साथ ही 'चहका' के अनिवार्य गायन से फाग या फगुआ का शुभारंभ हो जाता है। पुरुष 'आईल वसंती बहार बोलो सारा रारा' तो महिलाएं वसंत के मौसम में केदली खिलने की सूचना यूं देती हैं 'कवने बनवां मोरवा बोले सखी, केदली बने मोरवा बोले सखी'। दोनों ही वर्ग 'अंखिया लाले लाल एक नींद सोवे द बलमुवा' गाते हैं। बहरहाल वसंत पंचमी के दिन से चहका के बाद फाग गाए जाने की ही नहीं वरन इस दिन होलिका की स्थापना की परंपरा अब विलुप्त होती जा रही है। एक दशक पूर्व तक परंपरा यह कि वसंत पंचमी के बाद पूरे फाल्गुन मास में प्रतिदिन या सप्ताह में एक दिन ग्रामीण एकत्रित होकर ताल निबद्ध शास्त्रीय गीत चौताल गाते थे। द्विगुण और चौगुण में चौताल गाए जाने की परंपरा अब चंद स्थानों तक सिमटी है। चौताल में भाव प्रधान और कुप्रथा पर प्रहार करने वाले 'जेकरे घरे कन्या कुंवारी नींद कइसे आई' सरीखे गीतों की बानगी ही अलग है। फाल्गुन मास के बीतते ही चैत मास में 'रोज-रोज बोल कोइलर संझवां बिहनवां, आज काहें बोल आधी रतिया हो रामा' सरीखे वेदना समेटे गीत प्रमुखता से गाए जाते हैं हालांकि तमाम कथानक आधारित गीतों का भी समावेश है। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इन गीतों की परंपरा को कायम रखने वाले ग्रामीण कहीं प्रशिक्षण नहीं लेते थे। बस युवावस्था में ही बुजुर्गो संग संगत कर पारंगत होते थे। अब युवा विमुख हुआ तो परंपरा विलुप्त हो रही है।-dainik jagran

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