Thursday 6 October 2016

पुष्प की अभिलाषा-चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं




बलिराम सिंह, नई दिल्ली
कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी की यह कविता भी हमने बचपन में पढ़ी थी, जो कि राष्ट्र भावना को जाग्रत करती है। कविता के माध्यम से एक फूल माली से अपनी इच्छा जाहिर करता है कि उसे किसी देवता के ऊपर चढ़ाने के बजाय देश की रक्षा के लिए जाने वाले सैनिकों की राह में डाला जाए। आजादी के समय लिखी गई यह कविता आज भी हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक है, जितना आज से 70 साल पहले थी।
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

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